Guru Purnima

हमारे पहले गुरू माता पिता होते है जो हमें इस दुनिया में लाते है। जिनकी शिक्षा हमारे जीवन में हर जगह पर काम आती है।

अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को गुरु कहा जाता है। आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा का त्योहार मनाया जाता है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ। उन्होंने चारों वेदों का ज्ञान दिया और सभी 18 पुराणों की रचना की। इस दिन गुरु पूजा की जाती है। महर्षि व्यास को आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का जन्म भी इसी दिन हुआ। वह कबीरदास के शिष्य थे। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरु पूजन की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इस दिन से चार माह तक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। इसलिए यह चार माह अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान का भी विशेष महत्व है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरु पूजन की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इस दिन से चार माह तक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। इसलिए यह चार माह अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान का भी विशेष महत्व है।

गुरू शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है। पारमार्थिक और सांसारिक ज्ञान देने वाले व्यक्ति को गुरू कहा जाता है। माता पिता के बाद गुरू ही होता है जो हमें बिना किसी भेदभाव और निस्वार्थ भाव से हमारे जीवन को सकारात्मकता की ओर ले जाने में हमारी मदद करते हैं और हमें नकारात्मकता से दूर रखते हैं।

गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।

गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है। गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है, उन सद्गुरु को प्रणाम।

विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतं ज्ञानम्।
ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चाश्रवनिरोधः।।

विनय का फल सेवा है, गुरुसेवा का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल विरक्ति (स्थायित्व) है,और विरक्ति का फल आश्रवनिरोध (बंधनमुक्ति तथा मोक्ष) है।

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

उस महान गुरु को अभिवादन, जिसने उस अवस्था का साक्षात्कार करना संभव किया जो पूरे ब्रम्हांड में व्याप्त है, सभी जीवित और मृत्य (मृत) में।

धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते।।

धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं।

नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ।
गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत्।।

गुरु के पास हमेशा उनसे छोटे आसन पर ही बैठना चाहिए। गुरु के आते हुए दिखाई देने पर भी अपनी मनमानी से नहीं बैठे रहना चाहिए। अर्थात गुरू का आदर करना चाहिए।

किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम्।।

बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है।

गुरौ न प्राप्यते यत्तन्नान्यत्रापि हि लभ्यते।
गुरुप्रसादात सर्वं तु प्राप्नोत्येव न संशयः।।

गुरु के द्वारा जो प्राप्त नहीं होता, वह अन्यत्र भी नहीं मिलता। गुरु कृपा से निस्संदेह (मनुष्य​) सभी कुछ प्राप्त कर ही लेता है।

विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम्।
शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता।।.

ज्ञानवान, निपुणता, विनम्रता, पुण्यात्मा, मनन चिंतन हमेशा सचेत और प्रसन्न रहना ये साथ शिक्षक के गुण है।

निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते।।

जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते से चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं।